Wednesday 3 November 2010

मानव-दीप

मिट्टी, कांच और धातु के
कितने तरह के दिये
बनाये जाते हैं
जलाये जाते हैं,
बुझाये जाते हैं
और हम मानव भी
मिट्टी के नये दिये की तरह
हाड़-मांस के पुतलों के
आकार में
धरती पर आते हैं
जलते हैं, टिमटिमाते हैं
कभी-कभी साथ मिलकर
खास अवसरों पर
दीपावली की तरह ही
हँसते हैं
रोते हैं
जगमगाते हैं
परेशानियों, मुसीबतों और
दुखों के थपेड़े खाकर भी
जलते रहते हैं
अच्छे बुरे कर्मों को कर
प्रकाश फैलाते हैं
फिर जीवन की लौ के बुझते
उन्ही मिट्टी के दियों से
गल जाते हैं
और मिट्टी में मिल जाते हैं.

क्या करूँ..

एक औरत हूँ घर के कामों की जरूरत हूँ
एक दिये की तरह जलती-बुझती सूरत हूँ
लोगों की आँखों में सवाल उठते हैं अक्सर
खुद भी हैरत में हूँ एक हड़बड़ी की मूरत हूँ.

सुबह होते ही सूरज की आँखें चढ़ जाती हैं
हर किसी को अपने काम की पड़ जाती है
कहाँ से काम हों शुरू कहाँ पे होंगें खतम
सोचते हुए ही जिन्दगी तमाम हो जाती है.

घबराहट में जब हाथ से चीज़ छूट जाती है
तो दिल की धड़कन भी अक्सर बढ़ जाती है
याददाश्त को भी कभी मार जाता है लकवा
तो सब्जी में दोबारा और मिर्च पड़ जाती है.

इंसान काम करते-करते निढाल हो जाता है
थकान और भूख से बड़ा बुरा हाल हो जाता है
खाना होते हुए भी कभी खाने का समय ढूँढो
हड़बड़ी में हर काम भी एक ववाल हो जाता है.

Thursday 9 September 2010

बिजली की महिमा

जब-जब बिजली का वोल्टेज डाउन होता है
अंदेशा होने लगता है दिल धक-धक होता है

अंधेरों से इंसा ने समझौता न किया अब तक
बिजली की वेवफाई से बड़ा बुरा हाल होता है

असली झटका लगता है जब ये नहीं होती है
फिर इसके लौटने का सबको इंतज़ार होता है

बिखरी होती है आसमां पे रोशनी सितारों की
जमीं पे बिन बिजली के कष्ट बहुत होता है

रुतबा है इसका और जुल्म भी कर जाती है
अक्सर ही बिन इसके अँधेरों से साथ होता है

मजबूर कर दिया है इसने इतना पब्लिक को
कि अब रो-रोकर काम मोमबत्ती से होता है

बे-इन्तहां कर दी बिजली वालों ने अब इतनी
लोग कब सोयें या जागें उन्हें ना पता होता है

आदत पड़ी हुई है इसकी सभी को इतनी बुरी
कोई माडर्न टेकनोलोजी का काम नहीं होता है

कहती रहती है अलविदा अब अक्सर बेरहम
इंटरनेट कब होगा या नहीं ना ये पता होता है.

Tuesday 7 September 2010

दूर घाटी में

दूर घाटी में मचल रही है
कोई निर्झरा
शून्य नीलाकाश को निरख रही
है चुप धरा
मुस्कुराती वादियाँ खिली-खिली
सी धूप में
स्वप्नमयी हो उठी हैं खोयी
अपने रूप में
ढल रहा है दिन मगर इन्हें तो
होश ही नहीं
श्रंग झिलमिला उठे हैं रश्मियाँ
बिखर गईं
भाग रही धूप घिर रही है
साँझ भी घनी
नीरवता व्याप्त जैसे हो
युगों की बंदिनी
आँचल है फैल रहा धरती पे
छाँव का
पूछ रही रेशमी सी धूप पता
गाँव का
काँपती सी दिख रही हैं पंक्तियाँ
चिनार की
यह झरे से फूल कह रहे कहानी
हार की
मादकता फैल रही फूलों की
महक से
शांत है समीर हो रहे विहंग
स्तब्ध से
झाँक रहा है विजन में व्योम भी
भरा-भरा
दूर घाटी में मचल रही है कोई
निर्झरा.

ऐसे ही जायेंगे

हम खाली हाथ आये थे और खाली हाथ जायेंगे
ना हाथ में है कुछ ऐसा जो दुनिया को दे जायेंगें

कुछ बक्त बिताने को ही एक मेहमां से आये हैं
यादों के कुछ लम्हे देकर फिर रुखसत हो जायेंगे

फैलाते हैं खुशबू को फूल खिलें जो डाली-डाली
बिन मांगे कुछ दुनिया से वो भी मुरझा जायेंगे

पर कुछ लोग दिखाते अहंकार ये नादानी उनकी
टेंशन लेते नहीं किसी से वो टेंशन देकर जायेंगे

नया जमाना नये लोग हैं नयी सोहबतें हैं उनकी
आने वाली पीढ़ी को कुछ और पंख लग जायेंगे

बड़े चतुर हैं लोग ना सोचें कौन मरे या जिये यहाँ
अपना उल्लू सीधा कर ये लोग तिड़ी हो जायेंगे

ढोंगी, भोगी, जोगी जो हैं सब मतलब के साथी
वतन को ये जाने के पहले ही चौपट कर जायेंगे

बेटी की करने को शादी या घर के खर्च उठाने को
कुछ लोग ले रहे हैं कर्जा वो उसमें ही मर जायेंगे

गंदे नालों के पास घरों में इंसा रहते हैं चिथड़ों में
बदबू में जो जीते आये वो उसमें ही सड़ जायेंगे

नेता जी बैठे हैं घर में कहते हैं वो बीमार बहुत हैं
पैसे अगर सुँघाओ तो खटिया पर लात जमायेंगे

सांवरे सलोने कान्हा

ओ, मुरली वाले सब भक्तों के रखवाले
अब सुख-दुख हमारा सब तेरे ही हवाले.

यशोदा के लाल और बृज के नंदलाला
छिपे कहाँ पे तुम कान्हा सांवले सलोने
दिनभर घूमते सभी गोपियों को छेड़ते
माखन चुराके खाओ फिर लगते हो रोने

मैया मरोड़े कान जब जिद तुम करते
रूठ जाते और फिर रोकर भी सताते हो
तुम हो बड़े नटखट भाग जाते झट-पट
हठ करते और फिर भोले बन जाते हो

बंशी को बजाकर तुम सबको लुभाते हो
सबके ही मन में तुम बसे हो नंदलाला
बड़े चितचोर हो तुम देखो उन्हें छुपकर
गायों को चराने जायें झूमें सभी ग्वाला

जब गोपियों संग नाचो बरखा-फुहार में
उड़-उड़ लिपटे तुमसे राधा की चुनरिया
बृज की बालायें आयें नदिया के तट पर
मतवाली सी सभी तुझे घेरतीं सांवरिया

ओ, मुरली वाले सब भक्तों के रखवाले
अब सुख-दुख हमारा सब तेरे ही हवाले.

चाँद तुम चाँदनी मैं तेरी

जमीं आसमा का फरक है तो क्या
तुम धड़कनों में आकर बसे हो मेरी
चाँद तुम हो मेरे चाँदनी मैं तेरी.

आसमा पे हो तुम मैं हूँ कदमो तले
मैं भटकती यहाँ तू वहाँ पे जले
महफ़िलें सजी है तारों की वहाँ
हैरान सा है हर नजारा जहाँ
तन्हाइयों का दामन है फैला हुआ
साज तुम हो मैं रागिनी हूँ तेरी

जमीं आसमा का फरक है तो क्या
तुम धड़कनों में आकर बसे हो मेरी
चाँद तुम हो मेरे चाँदनी मैं तेरी.

अजनबी रास्तों पे कदम के निशां
मंजिलों की तरफ बढ़ रहे परेशां
अकेले ना तुम जा सकोगे कहीं
रात की शबनमी पलकों पे गिरा
दामन सा मैं तुमने पकड़ा सिरा
तुम मेरे हमकदम मैं हूँ साया तेरी

जमीं आसमा का फरक है तो क्या
तुम धड़कनों में आकर बसे हो मेरी
चाँद तुम हो मेरे चाँदनी मैं तेरी.

सावन की विदाई

सुहाना सा मौसम
हवा का मचलना
तितलियों का उड़ना भंवरों का गुंजन
पल-पल क्षितिज में
सिमटती है लाली
नीरवता भरता है खगकुल का कुंजन

राग अपना सुनाते हैं
झींगुर कहीं पर
आती है सांवली संझा कुछ लजाकर
और आँगन में
मदमाती है रातरानी
हवा में खुशबू छा जाती है बिखरकर

बरसने के पहले
गगन पर उमड़ती
उन काली घटाओं का लहराता दामन
चाँदनी को छुपाये
उतरती है यामिनी
बूँदों की रिमझिम से भरता है आँगन

फूलों और पातों से
माँगता है विदाई
इठलाती बहारों का दामन पकड़ कर
भिगोकर के
मखमली चूनर धरा की
अब रो रहा सावन उससे लिपट कर.

Monday 23 August 2010

आपे में नहीं हैं

रुतबा है जिनका ना आपे में वो हैं
सरे आम मुल्क में तबाही मची है
है न परवाह उनको उनकी बला से
इज्ज़त किसी की लुटी या बची है

आते नहीं हैं जिनको गिनना पहाड़े
वो पब्लिक में डाकू बने दिन दहाड़े
करते हैं पतलून पब्लिक की ढीली
और खुदके कसके बाँध रखे हैं नाड़े

करके गुनाह वह हैं खुद को छुपाते
इलज़ाम का धब्बा किसी पे लगाते
कोई आँखे उठाये या चूँ भी है करता
तो वे गीदड़ भी गुर्राके शेर बन जाते

मुँह में जपकर राम हमें उल्लू बनायें
निगाहें बचाकर तीन तेरह कर जायें
गिरगिट की तरह वे बदल लेते हैं रंग
जैसे ही उनको अपने वोट मिल जायें

सफेदपोश की असलियत नहीं दिखती
बगुला भगत की फितरत नहीं बदलती
सौ चूहे खाकर भी दिखाते हैं साफगोई
बेखबर हैं वो क्या किसी पे है गुजरती

बहानेबाजी करने को ढूँढते हैं सौ बहाने
चमचों को पड़ते हैं उनके नखरे उठाने
जल बिन उपवास में जूस को पी जाते
जेल भी जाते हैं वो तो शोहरत के बहाने.

आज़ाद देश के पंछी

आजाद होकर लोग अपने होश खो रहे हैं

आजाद वतन में जहर के बीज बो रहे हैं l


जिन्हें पता नहीं क्या फर्ज बनते उनके

वो डोर थामे मुल्क की दिन में सो रहे हैं l


तूफां में घिरे मांझी ख्वाबों को देखते हैं

कामूस में कश्ती को वो खुद डुबो रहे हैं l


जीने के लिये चाहिये जिनको सुकूं थोड़ा

सहकर मुसीबतें को वो मुर्दे से हो रहे हैं l


मजबूर हैं मजदूर जो सीने पे रखे पत्थर

मालिकों के दिल तो पत्थर के हो रहे हैं l


अपने वतन की बचाई आबरू जिन्होंने

शान उनकी लोग कालिख से धो रहे हैं l


यहाँ हर तरफ फैले हैं गुनाहों से भरे मंजर

हर दिन खुदा के नाम पर अंधेर हो रहे हैं l


न भरोसा इन्सान के इरादों का यहाँ कोई

बिन बात ही कुछ लोग यहाँ उदू हो रहे हैं l


नैतिकता की करीं थीं जिन्होनें कभी बातें

अब मकबूल होकर वही बदकार हो रहे है l


न जमाना है नेकी का न है सिफत इसकी

लूटकर खुलेआम लोग गाफिल हो रहे हैं l


वतन का मुस्तकबिल ना हुआ मुकम्मल

पर मुद्दों पर लोग लम्बी तकरीर दे रहे हैं l


ये कैसी लूटमार है ?

जिस देश की आन-बान, शान पर बनी हुई
उस देश के नेता व सरकार को धिक्कार है

चैन ढूँढा हर जगह पर मिल गईं मुसीबतें
खुशी के पल गिने-चुने हैं दुख यहाँ हजार हैं

किसी के पास लाश दफ़नाने को पैसे नहीं
तो सज रहीं कहीं कुछ अमीरों की मजार हैं

मन का दरवाज़ा भी और मंदिर भी एक है
पर उस मंदिर में रहने वाले देवता हज़ार हैं

अस्पताल सब लग रहे बाजार जैसे हों भरे
कहीं डाक्टर तो एक है पर बीमार बेशुमार हैं

लम्बी है कतार लगी और लम्बा इंतज़ार है
नल तो बस एक वहाँ और लोग बेक़रार हैं

महलों में जो रहते माँगें जन्नत की मन्नतें
दो जून रोटी खाकर कुछ लोग खुशगवार हैं

लोग डिग्री को साथ लेकर एड़ियाँ रगड़ रहे
नौकरी है एक मगर वहाँ कई उम्मीदवार हैं

अमीरों के जश्न में कुछ कुत्ते आकर खा गये
पर बाहर खड़े भिखारियों को लगती दुत्कार हैं.

Monday 26 July 2010

सावन आया रे

सावन की फैली हरियाली
झूमे हर डाली मतवाली
बचपन की याद दिलाती
आँखें फिर भर-भर आतीं
जब छायें घनघोर घटायें
झम-झम बारिश हो जाये
हवा के ठंडे झोंके आते थे
सब आँगन में जुट जाते थे
गर्जन जब हो बादल से
हम अन्दर भागें पागल से
पानी जब कहीं भर जाये
तो कागज की नाव बहायें
मौसम का जादू छा जाये
कण-कण मोहित हो जाये
गुलपेंचे का रूप बिखरता
हरसिंगार जहाँ महकता
एक नीम का पेड़ वहाँ था
और जहाँ पड़ा झूला था
झगड़े जिस पर होते थे
पर साहस ना खोते थे
पहल बैठने पे होती थी
और बेईमानी भी होती थी
जब गिर पड़ते थे रोते थे
दूसरे को धक्का देते थे
माँ तब आती थी घबरायी
और होती थी कान खिंचाई.

जीवन का क्रम

नभ में रंगों की छटा ऐसी ही थी
लेकिन अब ये जीवन की संझा है
सुबह ही तो आकाश के कोने में
जब लालिमा बिखरी थी
तो यही सूरज उदित हुआ था
अपने पथ पर एक अकेला यात्री
बन कर चल पड़ा था

दिन भर अपनी ऊर्जा को बिखेरा
और उसकी रश्मियों की ऊष्मा
धरती को विभोर करती रही
कण-कण में स्फूर्ति और जीवन
की धड़कन भरती रही
और अब संझा के आगोश में
निढाल हो चुका है वही सूरज

एक लम्बी यात्रा से शिथिल होकर
काले स्याह बादलों के पीछे
उसका जर्जर अस्तिव छुप रहा है
और लालिमा प्रस्थान कर चुकी है
कल यही सूरज फिर उसी उमंग से
अपनी पूरी ऊर्जा लेकर आयेगा
अपना कर्तव्य पूरा करने

फिर शुरू होगा वही जीवन का क्रम
किरणों का धरती पर उतरकर
उसके अंग-अंग पर बिखर जाना
सूरज की ऊष्मा का स्पंदन
धरती की रग-रग में समा जाना
फिर अपने जीवन के अंतिम क्षणों को
संझा को समर्पित करके डूब जाना.

Thursday 22 July 2010

ये दुनिया

ये मेरी पहली ग़ज़ल है..मुझे ग़ज़ल लिखना नहीं आता फिर भी मन हुआ लिखने का, तो कुछ झिझकते हुये ही सही...एक छोटी सी कोशिश की है....

किसी को बुरा कहकर लोग जल रहे हैं
बिन बात ही वो क्यों जहर उगल रहे हैं

सामने आकर कहने की नहीं हिम्मत
पीठ के पीछे उनके कदम मचल रहे हैं

स्मार्ट लोग अपनी चालों को दिखाकर
चुप रहने वालों पे बड़ा जुल्म कर रहे हैं

नाम और यश को रिश्बत खरीद लेती
और बेगुनाह जाकर जेलों में सड़ रहे हैं

कुछ की है हैसियत दुनिया खरीदने की
कुछ लोग रुखी-सूखी खाकर बहल रहे हैं

भोर के पहले कोई कचरा समेट जाता
कुछ लोग देर तक बिस्तर में सो रहे हैं

घर में लगी है खुश करने को बहू सबको
कुर्सी पे बैठे बाबू जी बड़-बड़ कर रहे हैं

बारिश के आने से एक नयी बहार आती
कुछ पात आँधी से धरती पर गल रहे हैं

किसी की फिकर में भलाई करो जिसकी
उसके लिये लोगों की नफरत को सह रहे हैं.

परिहास

कभी रुदन दिया कभी हास्य मधुर
ना रो पाई ना हँस पाई
मुझे ऐसी कड़ी बनाया क्यों
जो न जुड़ पाई न बिखर पाई....

किन अपराधों का फल है यह
किन पापों का प्रतिदान मिला
जो अनजानी सी राहों पर मुझे
मिला अमिय विष का प्याला
पथ पर से फूल उठा कर के
काँटों से पंथ सजाया क्यों
अनुराग किया फिर कंटक से
तो सुख सौरभ तू लाया क्यों

पीने का रहा बराबर क्रम
ना जी पाई ना मर पाई
कैसा है तू अबोध निर्मम
न मिलन ही दिया न विदाई दी...

मुझे क्षीर-उदधि में छोडा यदि
उत्ताल तरंगें उठायीं क्यों
था देना नहीं कूल मुझको
सागर में नाव बहायी क्यों
यदि करना था परिहास तुझे
मेरे जीवन के पग - पग में
मंजिल फिर दीघ्र बनाता ना
ना रखता तू मुझको भ्रम में

मुझ शिखा को छोडा मंझा में
न जल पाई न बुझ पाई
मुझे ऐसी कली बनाया क्यों
जो न खिल पाई न मुरझाई...

कभी रुदन दिया कभी हास्य मधुर
ना रो पाई ना हँस पाई
मुझे ऐसी कड़ी बनाया क्यों
जो न जुड़ पाई न बिखर पाई....

क्यों

कभी तुमने ही उसकी तरफ
रुख किया था और अपनी
चाहत का जाल बुना था
क्या वह महज
एक सपना था....

अहसास कुछ जगाये उसमे
लड़खड़ाये जब कदम तो
आगे का पता ना था
क्या वह महज
एक तड़पना था....

एक तिनका सी वह फिर
बहने लगी थी जलधार में
अपना समझ कर तुम्हें
फिर भी ना कह पाये
जो कहना था...

तुम खो चुके थे होश अपने
जज्ब हो चुके थे उसी में
उसको भी होश न रहा
क्या बस अरमान का ही
वह मचलना था....

सूरज बनकर रोशन हुये
फिर क्षितिज की तरफ
तुम बढ़ने लगे
क्यों चाहा था उसे जब
तुम्हें ढलना था....

कभी तुम टहलते थे रात में
तारों के नीचे ओंठों को भींचे
सुलगते दिल से
क्या वह सब एक
पागलपना था....

ओस में डूबी घास को कुचलना
बरसती चाँदनी में
उसके ख्यालों में डूबना
क्या था ये सब अगर
उसे भूलना था....

पार्टी का इनविटेशन

फेसबुक पर चल पड़ा पार्टियों का सिलसिला
हम भी गये पार्टी में जब इनविटेशन मिला
किसी की शादी की पार्टी हो या जन्मदिन पर
हमने तो खाना बनाना बंद कर दिया घर पर
लोगों से मिलकर कुछ मन भी बहलने लगा
पर उनकी हरकतें देखकर मन डरने लगा
एक पार्टी थी कहीं किसी के जन्म दिन पर
मित्र दिल के बड़े अच्छे थे और सुन्दर था घर
रिश्तेदार और मित्रों की थी वहाँ भरमार
तो पागलों की भी संख्या थी बेशुमार
काफी लोग जो लगते थे बिलकुल नार्मल
जब पर्दा उठा तो लगी फरक कुछ शकल
उनकी बातें जब सुनीं तो लगे अटपटे
वहाँ जोगी भी खड़े थे पहने जूते फटे
एक बाबा थे वहाँ जिनकी दाढ़ी थी लम्बी
नाम था उनका पागल बाबा या फिर पी.बी.
रह-रह के खुजा रहे थे वो अपनी लम्बी दाढ़ी
और मुँह में चबा रहे थे कुछ पान सुपाड़ी
तरह-तरह के नमूने के वहाँ आये थे लोग
सबके सब जुटे थे लगाने में मिष्ठान का भोग
कई लोग तो खड़े थे अपनी ही बातों में अटके
कुछ खाने के इंतजार में लगे भटके-भटके
पकवान के थाल जैसे ही लाये गये वहाँ
तो और भी हुजूम इकठ्ठा हो गया वहाँ
आकर लाइन में लग गये एक दूजे से सटे
प्लेटें और नैपकिन सबके बीच में बंटे
कुछ ने खायी हर एक मिठाई जमकर
समोसों पे तो जमी थी सबकी ही नजर
ठूँस-ठूँस के खाया सबने जितना खा सके
फिर कुछ बैठ गये अपने पेट को पकड़ के
बाद में कुछ लोग लगने लगे थोड़े सिक
तो भीड़ भी धीरे-धीरे कम हुई तनिक
लोगों का दिल पार्टियों के लिये क्यों पागल है
सोच रही हूँ कि मुफ्त का खाना कहाँ कल है.

सजा

तुम मुझको सदा
तोड़ते ही रहोगे
और मैं
टूटती ही रहूँगी
तुम मुझको सदा
कोसते ही रहोगे
और मैं
बिसूरती ही रहूँगी

अपनी तपिश में
जिऊँगी सदा
और फिर
जीकर झुलसती रहूँगी
घावों को छुपाकर
ज़माने से
मरहम के लिये
बस तरसती ही रहूँगी.

एक दिन जब मैं
ना रहूँगी
तो शायद तुम्हें
कुछ अहसास होगा
यदि तुम्हारी आँखें
ढूँढेंगी मुझे
तो यादों के धागों
से ही साथ होगा.

तुम्हारे उन आँसुओं के
बहने का
मेरे लिये तब
कोई सार न होगा
ख्वाहिश, खुशियों और
गम से परे
मेरे लिए कहीं दूर
एक नया संसार होगा.

जब आँख फड़की

आज सुबह हुई और जैसे ही खुली
दायीं आँख की खिड़की
तो वो जोर-जोर से फड़की
मन को होने लगा बड़ा खटका
घंटों को रहा भटका-भटका
हो रहा था बड़ा अंदेशा
कहाँ से मिलेगा बुरा संदेशा
कुछ देर बाद एक खबर आई
तो मैं बहुत ही घबराई
एक दोस्त ने बताया की मैंने
आज उसकी जान बचायी
मैंने पूछा की वो कैसे भाई
बोला, '' दीदी, आपकी दुआ रंग लाई
जा रहा था आफिस को बस
गया मैं ट्रैफिक में फंस
आ रही थी बहुत झुंझलाहट
वाहन जा रहे थे घिसट-घिसट
हार्न का शोर और लोगों में खट-पट
लोग गुस्से में देखते हैं पलट-पलट
काम के लिये मैं हो रहा था लेट
कुछ लोग नहीं करते हैं इंडीकेट
ऐसे ही एक ट्रक सामने आया
उसका मूव मैं समझ न पाया
ब्रेक लगाने में कुछ टाइम लगा
हड़बड़ी में वो भी दे गया दगा
अचानक एक ट्रक ने मारी टक्कर
साइकिल संग गिरा मैं दूर उछल कर
मेरा सर एक स्थिर ट्रक से टकराया
हेलमेट ने तो सर को बचाया
पर जिसकी बहना का हो ऐसा प्रताप
उस भाई को क्या हो संताप
और आपकी दुआ मौत से खींच लाई. ''
तो सुनकर मैं बहुत सकुचाई
मैंने कहा, '' मेरे प्यारे भाई
मैंने कहाँ तुम्हारी जान बचाई
उस ऊपर वाले की है सब दुहाई
वही सबकी करता है भलाई
उसकी दया से तुम सलामत हो
अपने वीवी बच्चों की अमानत हो
तुम्हारी जान बची बहुत गनीमत है
तुम्हारी फेसबुक पर बहुत कीमत है
आज मौत को तुमने दुत्कार दिया
और हम लोगों पर उपकार किया
तुम मुझे प्यार से देते हो सम्मान
इतना तो रहता है मुझको ध्यान
मैं तो हूँ एक मामूली सी इंसान
रक्षा करने वाला तो है भगवान
तुम ऐसे ही हँसते-मुस्कुराते रहो
और ऊपर वाले के गुन गाते रहो.''

आहटें

उठ गये कदम चल पड़े
वो तभी
उनसे शोर तो होगा
कभी न कभी
आहटों की ना होती है
कोई जुबां
ना जानते हैं कदम कि
जाना कहाँ

उदासी में लिपटी हैं
जो तन्हाईयाँ
अब हवा भी है जाने से
डरती वहाँ
जर्रा-जर्रा वहाँ का सहम
सा गया
यह कैसा किसी से गुनाह
हो गया

ये सचाई है या फिर कोई
धोखा हुआ
साँसों का चलना जैसे है
रोका हुआ
जैसे ही आने की होती है
उसको भनक
तो अचानक ही फिर से
जाता तुनक

ओ, हवा अब ना तू
मचलना कभी
आहटों अब खामोश
रहना सभी
कोई क़दमों से कह दे न
जायें वहाँ
अब न करता है कोई
इंतजार जहाँ

किसी की आवाज़ से न
शिकवा रहा
बिन कहे ही कोई वह सब
कह गया
उन आहटों से कुछ हो
गयी है खता
उन्हें बहकने की मिल
गयी है सजा.

बरसो मेघा बरसो

उमड़-घुमड़ कर आओ बदरा
बरसो गरज-गरज के
नीर गगरिया लाओ भर के
बरसो सब कुछ तज के

तृषित सभी खेत खलियान
विचलित हैं सब वनवासी
अम्बर सूना-सूना सा ताके
धरती है कितनी प्यासी

फूल-पात हैं सब मुरझाये
उमस भरी हैं सभी दिशायें,
वन-उपवन और पंछी प्यासे
ताल-तलैयाँ सूखे जायें

कैसे हो गये इतने निर्मम
धरती इतनी हो गयी बंजर
बारिश को जन-जन तरसे
सूरज की आग चलाये खंजर

क्यों हमसे हो इतने रूठे
अब झूठी गर्जन अपनी छोड़ो
तपन भरा है जग सारा
कुछ तो देखो मुख ना मोड़ो

गर्जन करके आशा देते
अब ना और हमें तरसाओ
भर दो नदियाँ, ताल-तलैयाँ
आके झम-झम जल बरसाओ

भीषण गर्मी अग्नि बरसे
ओ ! मेघा अब बरसो भी आके
धरती का तन हरिया जाये
आकर हर्षा दो मन सबके.

सुधि की परछाईं

सुधि की झीनी सी परछाईं
भावों का उठता अमित शोर
रह-रह कर पलकें ढँक लेतीं
अधखुले दृगों की सजल कोर

सूने नयनों में झांको तो
बस शून्य दृष्टिगोचर होगा
यह मूक नयन जानते यही
आंसू की बेबस परिभाषा

मन के वनप्रांतर में अनेक
भावों के विहंग कूजते हैं
विश्वास टूट पल में जाता
यह विहंग कहीं जा छिपते हैं

सुख की कुछ मोहक सी छाया
क्षण भर पड़ती दिखलाई है
दुख का साथ उम्र भर का
जिसने की प्रीति निभाई है

विश्वास साथ दे सका नहीं
सुख की भी छाया मिली नहीं
केवल स्वप्नों की छाया में
जीवन-पथ पर मैं बढ़ी रही.

ये फिर छलकीं

फिर भर-भर आईं ये पगली
अब इनको छलक के जाना है...

मौसम बदला बादल छाये
अब इनको बरस के जाना है
ये बोझिल मन होता विन्हल
अब इसको कुछ समझाना है

मन को फिर तम ने आ घेरा
यह कैसा एक ताना-बाना है
आघात सह रहा मन कितना
गिर-गिरकर खुद उठ जाना है

कब सुख - दुख की ऋतु आये
अब इसको क्या समझाना है
इन आंधी-तूफानों में फंसकर
तिनका - तिनका उड़ जाना है

आँखों के पास नहीं कुछ भी
बस आंसू का भरा खजाना है
पलकों पर जो अटके हैं आंसू
अब इनका तो यही ठिकाना है

फिर भर-भर आईं ये पगली
अब इनको छलक के जाना है...

Monday 28 June 2010

कनेर का वन

कुछ दूर यहाँ से हटकर
एक कनेर का वन है
जिसके सुरभित कानन में
अलि करते कुछ गुंजन हैं
उस वन के झुरमुट में
कुछ नन्ही परियाँ रहती हैं
दिन भर रहतीं फूलों में
वह गंध पिये जीती हैं
इन परियों की भी है
एक सुंदर सी शहजादी
जिसको मिली हुई है
कुछ ज्यादा ही आजादी
रात्रिकाल होने पर
जब चन्द्रज्योति मुस्काती
तब परियाँ जग-जग कर
नभ के आँगन में आतीं
और अंगड़ाई ले उठती
कुछ रुकी हुई मलयानिल
रंगीन समां बंध जाता
तारों की होती झिलमिल
कुछ देर जरा वह यूँ ही
करतीं विहार गगन में
जब तक छाती नीरवता
धरती के हर कन-कन में
जब रात्रि पड़ी होती श्लथ
सारी धरती सो जाती
किरनों की डोरी पकडे
परियाँ धीरे से आतीं
लेकर अपने हाथों से
स्वप्नों की रेशम चादर
धीरे से उड़ा हैं देती
तब निद्रित शिशुओं पर
यह कोमल कुसुम अचानक
देखते स्वप्न तब प्यारे
स्वप्नों में परियाँ रानी
तब गीत सुनातीं न्यारे
रंगीन लोक परिओं का
शिशुओं को मस्त बनाता
इसलिए रात्रि होते ही
हर नन्हा शिशु सो जाता
तुमने भी देखा होगा
कुछ नन्हे शिशु मुस्काते
उस समय परी रानी की
गोदी में करते बातें
परियाँ उनको हैं सुनातीं
कुछ मीठे गीत शहद से
मृदु किलकारी भर उठते
वे मीठा सपन टूटते
उषाकाल से पहले
स्वप्नों का जाल हटाकर
आ जाती हैं वह वन में
सोतीं फूलों में जाकर.

साँझ

यह सलोनी साँझ जाने कब
उतर के आ गयी
अभी-अभी तो धूप थी
ये कब घटा सी छा गयी.

छोड़ कर के तेज अपना
जा छिपीं रवि रश्मियाँ
झुटपुटे के आवरण में
हैं सिमटती दूरियाँ
पाँख झटक विहँग उड़े
नीड़ में अपने गये
सांध्य-अर्चना के लिये
फूल भी कुछ झर गये

ढूँढ रही पंथ अपना
वापस भ्रमरावली
जब भटक के थक गये
वह पुष्प की गली-गली
सरिता की थम चुकी हैं
गुनगुनाती लहरियाँ
सागर भी शांत है
ना कर रहा अठखेलियाँ

गहन जल में डूबता सा
सूरज भी छुप गया
छेड़-छाड़ करता सा
पवन भी रुक गया
मुस्कुरा उठा निशीथ
दूर के आकाश में
चाँदनी की झिलमिलाहट
आ रही है पास में

श्यामली छलनामयी
अनजान सी है आ रही
पवन की गुदगुदी से
हर दिशा सिहर रही
बादलों की ओट से
चाँदनी जब आयेगी
तुहिन कणों में डूबकर
कली - कली नहायेगी

यह सलोनी साँझ जाने
कब उतर के आ गयी
अभी-अभी तो धूप थी
ये कब घटा सी छा गयी.

इधर देख आली

अब आकर इधर देख आली.

इस निर्झर की धारा में
यह झिलमिल सा क्या होता
जैसे चाँदी का सजलगात
क्या कोई बहा
गया है ढेरों बेला
के फूल आज

अब आकर इधर देख आली.

या नैसर्गिक आभा ले
इस संध्या बेला में
करने को अठखेली
है कोई अप्सरा उतरी
जो भटक गयी
है यहाँ आज

अब आकर इधर देख आली.

या लगता कुछ ऐसा
कुछ दिव्य लोक के वासी
मानसरोवर से कुछ
हँस यहाँ पर आये
अब करते विहार
जो पँक्ति -बाँध

अब आकर इधर देख आली.

या फिर संध्या होने से
पाकर एकांत इस तट पर
कुछ तारे टूट गगन से
गिर पड़े सलिल आँचल में
जो टिमटिम से करते
तैर रहे हैं पास-पास

अब आकर इधर देख आली.

या सुंदर सी जलपरियाँ
जो श्वेत वसन में सजकर
धरती की शोभा लखने
आयीं समुद्र के तल से
वह सब मिलजुलकर
तैर रही हैं एक साथ

अब आकर इधर देख आली.

चाँदनी

है उतर गगन
से तू आती
जब चंदा की
खुलती मधुशाला
खो देता होश
तिमिर अपना
तेरे नयनों की
पीकर हाला.

करके कटाक्ष
इठलाती रहती
ओ, फूलों सी
कोमल उज्ज्वला
तम से खेले
तू आँखमिचौली
फिर छिप कहीं
जाती है चपला.

फैलाये तू अपना
मधुर हास्य
तुझमें ना कुछ
है अंतर आया
ओ, सुहासिनी
अब बता जरा
है कहाँ से
चिर यौवन पाया.

सखी

बातें करने को सखी से
मन इतना हुआ अधीर
अंखियाँ बदली सी बनीं
भर-भर आये नीर
उलसित मन इतना हुआ
दिल की धड़कन भी बढ़ी
जब आई याद सखी
सालों से न देखा था
बातें करनी थीं कई
और करनी थी गुफ्तगू
फिर फोन पर संदेशा
आया जब एक दिन
कुछ पल न समझ सकी
रोये, हँसे या क्या करे
शब्द भी ढूंढे तो मिल न सके
बचपन फिर सजग हो उठा
यादों के पन्ने पलटने लगे
मन पुलकित हुआ
नयन बरसने लगे
पल ठहर से गये
कुछ समय के लिये
जब सखी ने पुकारा उसे
फिर शब्दों का सैलाब
रुक न सका
एक दूजे से कितना
कुछ कह गयीं
जिसमें सारे शिकवे
गिले बह गये
दूरियाँ मिट गयीं
पल गुजरते रहे
बातों के चले सिलसिले
कुछ अपनी कही
कुछ उसकी सुनी
क्या हुआ जो
मिल न सकीं वह गले.

वरदान दो माँ

बिन तुम्हारी कृपा के किस तरह मैं गीत गाऊँ
शब्द हैं मेरे अधूरे किस तरह कविता रचाऊँ
भाव कुछ ऐसे मुझे दो विश्व के कल्याण को माँ

आज तुम वरदान दो माँ.

विस्तार दो मेरी कल्पना को शब्द का कुछ कोष दो
लेखनी रुक ना सके और भाव को निर्मल करो
शीघ्र ही तुम दूर कर दो बुद्धि का अज्ञान यह माँ

आज तुम वरदान दो माँ.

लेखनी में वह शक्ति भर दो कह सके सारी व्यथायें
और बाकी जो भी हो ना लेखनी से छूट जाये
जो तेरी गरिमा बढायें कुछ वह ऐसे गान दो माँ

आज तुम वरदान दो माँ.

कमल चरणों में बिठाकर तुम मुझे आशीष दे दो
कर सकूँ सेवा तुम्हारी तुम मुझे यह भीख दे दो
गीत जो कुछ भी लिखूँ उसमें तेरी मुस्कान हो माँ

आज तुम मुझे वरदान दो माँ.

नीरस जीवन

बंधी जिंदगी घिसट रही है
कहीं न कुछ भी तो नवीन है
प्रतिदिन होती सुबह और
आरंभ खेल फिर जीवन का
नीरसता हो गयी व्याप्त
आहें भरती माँ की ममता
शहरों की चहल-पहल नहीं
गम दूर करे ना वह मदिरा
आकर के देखो वहाँ जहाँ
रहता जीवन भर का कचरा
सिसक-सिसक निर्धनता रोती
यहाँ जिन्दगी हीन है
कहीं न कुछ भी तो नवीन है
मजबूरी की दुनिया बसती
गन्दा सा नाला बहे जहाँ
दुर्गन्धपूर्ण इस जीवन में
है साज़ कहाँ श्रृंगार कहाँ
यहाँ न नया सबेरा होता
ना ही जीवन में हेर-फेर
सुबह-सुबह होते ही सबको
लेती नयी उदासी घेर
पता नहीं क्या सुख है उनको
वे तो दुख में लीन हैं
कहीं न कुछ भी तो नवीन है
नन्हे-नन्हे फूल जहाँ
निरवस्त्र चीखते रहते हैं
माँ-बाप बेबसी से रोते
भूखे बच्चे जब तड़पते हैं
हर शाम उदासी में लिपटे
वापस आते हैं थके-थके
ढंग से न मिल पाते उनको
सूखी रोटी के दो टुकड़े
घुट जाते अरमान यहाँ
हर चेहरा भाव-विहीन है
कहीं न कुछ भी तो नवीन है
लज्जा क्या जाने वह
जिसने तन भर कपड़े ना पहने
तनिक विधाता इधर देखता
उपहास बनाया है जिसने
भाग्य हँसा करता है उनपर
करता है निर्दय परिहास
अमित लेख मिट सके नहीं
जब तक टूटे अंतिम साँस
इनकी तो किसमत मलीन है
कहीं न कुछ भी तो नवीन है.

Friday 25 June 2010

मत कहो

मत कहो बंद कर लो आँखें
फिर स्मृति-मेघ उमड़ आयेंगे.

आ-आकर अब मत छेडो
कोई कहता मुझको पागल
उसे तुम पागल ही कहने दो
अंताप्रदेश में भावों की
हिमशिला पड़ी रहने दो
मत उसे दिखाओ आँच
उसे तुम वहीं जमी रहने दो
नयनों को थिर रहने दो
मत कहो उठाओ यह पलकें
फिर सौ-सौ जलधि उमड़ आयेंगे

मत कहो बंद कर लो आँखें
फिर स्मृति-मेघ उमड़ आयेंगे.

मत कहो कभी हँसने को
मुझे स्वयं टूट जाने दो
मन में टूटी यादों के
खंडहर पड़े रहने दो
मत वहाँ टटोलो जाके
कुछ राज वहाँ रहने दो
मत छेड़ो स्मृति-तार
मुझे तुम बेसुध ही रहने दो
मत कहो गिराओ यह अलकें
मुख पर सावन-घन छा जायेंगे

मत कहो बंद कर लो आँखें
फिर स्मृति-मेघ उमड़ आयेंगे.

मुझे विगत भूल जाने दो
मन के इस नील निलय में
तुम शून्य भरा रहने दो
रसना को चुप रहने दो
मुझे गीत भूल जाने दो
मत छेड़ो राख चिता की
कुछ चिनगारी रहने दो
तुम अधर बंद रहने दो
मत कहो कि खोलो बंद अधर
यह अगणित विरह गीत गायेंगे

मत कहो बंद कर लो आँखें
फिर स्मृति-मेघ उमड़ आयेंगे.

Thursday 13 May 2010

ये पगला मन

ये पगला मन
अरे! पगले मन तुझे क्या होता
क्यों तू गीला - गीला
सा रहता

हर कोई आकर मुझे रुला जाता
मुझे बार - बार
बहका जाता

इस गले का हार बनी एक माला
आभा ने भी अपना
जादू डाला

कभी गीता पाठ पढ़ा जाती
कभी रितु महक सी
भर जाती

कभी कोई आता बन स्वप्निल
मन में कर देता
कुछ झिलमिल

कभी आकर प्रनी मृदु हास भरे
कभी मन में कोई
प्रवेश करे

जब रश्मि भी आकर मुस्काये
आलोक भी आलोकित
कर जाये

फिर दीपशिखा होती प्रज्वलित
कोई दीपक बन जलता
है नित

कभी मिले सुधा-मधु का स्वाद
कभी ' आनंद ' से हो
जाता विवाद

कभी कोई हेमनिधि बहला जाता
कभी कोई विनोद सा
बन जाता

नरेन्द्र भाई तो हैं ज्ञान - समुन्दर
राम भुवन का क्या कहना
बड़े धुरंधर

मन मयूरी मोहित होकर नाचे
कमलेश का मन भी
भरे कुलांचे

मन रिझा के उसमें बसी प्रिया
सबने मिल जीवन
रास किया

रामेन्द्र भाई हैं एक अलग मिसाल
हर बात में बड़ा उत्तर जब
करो सवाल

सबने मिल अतुलित हास दिया
परिहास से होता
मुदित जिया

कहीं इन्द्र-धनुष के रंग छिटके
कहीं कुसुम खिलें
वंदना करके

कभी किशन बन कोई जाता
कभी ' सलिल ' निर्झर
बन बहता

कोई रेनू बन कन-कन सा चमके
कोई शिल्पी है जो
आकर खनके

जब-जब मिले भवानी की आहट
कुछ लिखना पड़ता है
झटपट

कहीं मिल जाते हैं जब सुबोध
और संजय - विनय भी
करें अनुरोध

तो पाकर इतना अनुराग प्रचुर
मन में छिड़ जाता है
राग मधुर .