नभ में रंगों की छटा ऐसी ही थी
लेकिन अब ये जीवन की संझा है
सुबह ही तो आकाश के कोने में
जब लालिमा बिखरी थी
तो यही सूरज उदित हुआ था
अपने पथ पर एक अकेला यात्री
बन कर चल पड़ा था
दिन भर अपनी ऊर्जा को बिखेरा
और उसकी रश्मियों की ऊष्मा
धरती को विभोर करती रही
कण-कण में स्फूर्ति और जीवन
की धड़कन भरती रही
और अब संझा के आगोश में
निढाल हो चुका है वही सूरज
एक लम्बी यात्रा से शिथिल होकर
काले स्याह बादलों के पीछे
उसका जर्जर अस्तिव छुप रहा है
और लालिमा प्रस्थान कर चुकी है
कल यही सूरज फिर उसी उमंग से
अपनी पूरी ऊर्जा लेकर आयेगा
अपना कर्तव्य पूरा करने
फिर शुरू होगा वही जीवन का क्रम
किरणों का धरती पर उतरकर
उसके अंग-अंग पर बिखर जाना
सूरज की ऊष्मा का स्पंदन
धरती की रग-रग में समा जाना
फिर अपने जीवन के अंतिम क्षणों को
संझा को समर्पित करके डूब जाना.
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