Monday 26 July 2010

जीवन का क्रम

नभ में रंगों की छटा ऐसी ही थी
लेकिन अब ये जीवन की संझा है
सुबह ही तो आकाश के कोने में
जब लालिमा बिखरी थी
तो यही सूरज उदित हुआ था
अपने पथ पर एक अकेला यात्री
बन कर चल पड़ा था

दिन भर अपनी ऊर्जा को बिखेरा
और उसकी रश्मियों की ऊष्मा
धरती को विभोर करती रही
कण-कण में स्फूर्ति और जीवन
की धड़कन भरती रही
और अब संझा के आगोश में
निढाल हो चुका है वही सूरज

एक लम्बी यात्रा से शिथिल होकर
काले स्याह बादलों के पीछे
उसका जर्जर अस्तिव छुप रहा है
और लालिमा प्रस्थान कर चुकी है
कल यही सूरज फिर उसी उमंग से
अपनी पूरी ऊर्जा लेकर आयेगा
अपना कर्तव्य पूरा करने

फिर शुरू होगा वही जीवन का क्रम
किरणों का धरती पर उतरकर
उसके अंग-अंग पर बिखर जाना
सूरज की ऊष्मा का स्पंदन
धरती की रग-रग में समा जाना
फिर अपने जीवन के अंतिम क्षणों को
संझा को समर्पित करके डूब जाना.

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