Thursday, 22 July 2010

परिहास

कभी रुदन दिया कभी हास्य मधुर
ना रो पाई ना हँस पाई
मुझे ऐसी कड़ी बनाया क्यों
जो न जुड़ पाई न बिखर पाई....

किन अपराधों का फल है यह
किन पापों का प्रतिदान मिला
जो अनजानी सी राहों पर मुझे
मिला अमिय विष का प्याला
पथ पर से फूल उठा कर के
काँटों से पंथ सजाया क्यों
अनुराग किया फिर कंटक से
तो सुख सौरभ तू लाया क्यों

पीने का रहा बराबर क्रम
ना जी पाई ना मर पाई
कैसा है तू अबोध निर्मम
न मिलन ही दिया न विदाई दी...

मुझे क्षीर-उदधि में छोडा यदि
उत्ताल तरंगें उठायीं क्यों
था देना नहीं कूल मुझको
सागर में नाव बहायी क्यों
यदि करना था परिहास तुझे
मेरे जीवन के पग - पग में
मंजिल फिर दीघ्र बनाता ना
ना रखता तू मुझको भ्रम में

मुझ शिखा को छोडा मंझा में
न जल पाई न बुझ पाई
मुझे ऐसी कली बनाया क्यों
जो न खिल पाई न मुरझाई...

कभी रुदन दिया कभी हास्य मधुर
ना रो पाई ना हँस पाई
मुझे ऐसी कड़ी बनाया क्यों
जो न जुड़ पाई न बिखर पाई....

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