Thursday, 13 May 2010

ये पगला मन

ये पगला मन
अरे! पगले मन तुझे क्या होता
क्यों तू गीला - गीला
सा रहता

हर कोई आकर मुझे रुला जाता
मुझे बार - बार
बहका जाता

इस गले का हार बनी एक माला
आभा ने भी अपना
जादू डाला

कभी गीता पाठ पढ़ा जाती
कभी रितु महक सी
भर जाती

कभी कोई आता बन स्वप्निल
मन में कर देता
कुछ झिलमिल

कभी आकर प्रनी मृदु हास भरे
कभी मन में कोई
प्रवेश करे

जब रश्मि भी आकर मुस्काये
आलोक भी आलोकित
कर जाये

फिर दीपशिखा होती प्रज्वलित
कोई दीपक बन जलता
है नित

कभी मिले सुधा-मधु का स्वाद
कभी ' आनंद ' से हो
जाता विवाद

कभी कोई हेमनिधि बहला जाता
कभी कोई विनोद सा
बन जाता

नरेन्द्र भाई तो हैं ज्ञान - समुन्दर
राम भुवन का क्या कहना
बड़े धुरंधर

मन मयूरी मोहित होकर नाचे
कमलेश का मन भी
भरे कुलांचे

मन रिझा के उसमें बसी प्रिया
सबने मिल जीवन
रास किया

रामेन्द्र भाई हैं एक अलग मिसाल
हर बात में बड़ा उत्तर जब
करो सवाल

सबने मिल अतुलित हास दिया
परिहास से होता
मुदित जिया

कहीं इन्द्र-धनुष के रंग छिटके
कहीं कुसुम खिलें
वंदना करके

कभी किशन बन कोई जाता
कभी ' सलिल ' निर्झर
बन बहता

कोई रेनू बन कन-कन सा चमके
कोई शिल्पी है जो
आकर खनके

जब-जब मिले भवानी की आहट
कुछ लिखना पड़ता है
झटपट

कहीं मिल जाते हैं जब सुबोध
और संजय - विनय भी
करें अनुरोध

तो पाकर इतना अनुराग प्रचुर
मन में छिड़ जाता है
राग मधुर .

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