यह सलोनी साँझ जाने कब
उतर के आ गयी
अभी-अभी तो धूप थी
ये कब घटा सी छा गयी.
छोड़ कर के तेज अपना
जा छिपीं रवि रश्मियाँ
झुटपुटे के आवरण में
हैं सिमटती दूरियाँ
पाँख झटक विहँग उड़े
नीड़ में अपने गये
सांध्य-अर्चना के लिये
फूल भी कुछ झर गये
ढूँढ रही पंथ अपना
वापस भ्रमरावली
जब भटक के थक गये
वह पुष्प की गली-गली
सरिता की थम चुकी हैं
गुनगुनाती लहरियाँ
सागर भी शांत है
ना कर रहा अठखेलियाँ
गहन जल में डूबता सा
सूरज भी छुप गया
छेड़-छाड़ करता सा
पवन भी रुक गया
मुस्कुरा उठा निशीथ
दूर के आकाश में
चाँदनी की झिलमिलाहट
आ रही है पास में
श्यामली छलनामयी
अनजान सी है आ रही
पवन की गुदगुदी से
हर दिशा सिहर रही
बादलों की ओट से
चाँदनी जब आयेगी
तुहिन कणों में डूबकर
कली - कली नहायेगी
यह सलोनी साँझ जाने
कब उतर के आ गयी
अभी-अभी तो धूप थी
ये कब घटा सी छा गयी.
vivid descriptions with minutest details
ReplyDeleteuthojago ji,
ReplyDeleteThanks a lot for appreciating my poem.