Monday 28 June 2010

नीरस जीवन

बंधी जिंदगी घिसट रही है
कहीं न कुछ भी तो नवीन है
प्रतिदिन होती सुबह और
आरंभ खेल फिर जीवन का
नीरसता हो गयी व्याप्त
आहें भरती माँ की ममता
शहरों की चहल-पहल नहीं
गम दूर करे ना वह मदिरा
आकर के देखो वहाँ जहाँ
रहता जीवन भर का कचरा
सिसक-सिसक निर्धनता रोती
यहाँ जिन्दगी हीन है
कहीं न कुछ भी तो नवीन है
मजबूरी की दुनिया बसती
गन्दा सा नाला बहे जहाँ
दुर्गन्धपूर्ण इस जीवन में
है साज़ कहाँ श्रृंगार कहाँ
यहाँ न नया सबेरा होता
ना ही जीवन में हेर-फेर
सुबह-सुबह होते ही सबको
लेती नयी उदासी घेर
पता नहीं क्या सुख है उनको
वे तो दुख में लीन हैं
कहीं न कुछ भी तो नवीन है
नन्हे-नन्हे फूल जहाँ
निरवस्त्र चीखते रहते हैं
माँ-बाप बेबसी से रोते
भूखे बच्चे जब तड़पते हैं
हर शाम उदासी में लिपटे
वापस आते हैं थके-थके
ढंग से न मिल पाते उनको
सूखी रोटी के दो टुकड़े
घुट जाते अरमान यहाँ
हर चेहरा भाव-विहीन है
कहीं न कुछ भी तो नवीन है
लज्जा क्या जाने वह
जिसने तन भर कपड़े ना पहने
तनिक विधाता इधर देखता
उपहास बनाया है जिसने
भाग्य हँसा करता है उनपर
करता है निर्दय परिहास
अमित लेख मिट सके नहीं
जब तक टूटे अंतिम साँस
इनकी तो किसमत मलीन है
कहीं न कुछ भी तो नवीन है.

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