Monday 26 July 2010

सावन आया रे

सावन की फैली हरियाली
झूमे हर डाली मतवाली
बचपन की याद दिलाती
आँखें फिर भर-भर आतीं
जब छायें घनघोर घटायें
झम-झम बारिश हो जाये
हवा के ठंडे झोंके आते थे
सब आँगन में जुट जाते थे
गर्जन जब हो बादल से
हम अन्दर भागें पागल से
पानी जब कहीं भर जाये
तो कागज की नाव बहायें
मौसम का जादू छा जाये
कण-कण मोहित हो जाये
गुलपेंचे का रूप बिखरता
हरसिंगार जहाँ महकता
एक नीम का पेड़ वहाँ था
और जहाँ पड़ा झूला था
झगड़े जिस पर होते थे
पर साहस ना खोते थे
पहल बैठने पे होती थी
और बेईमानी भी होती थी
जब गिर पड़ते थे रोते थे
दूसरे को धक्का देते थे
माँ तब आती थी घबरायी
और होती थी कान खिंचाई.

जीवन का क्रम

नभ में रंगों की छटा ऐसी ही थी
लेकिन अब ये जीवन की संझा है
सुबह ही तो आकाश के कोने में
जब लालिमा बिखरी थी
तो यही सूरज उदित हुआ था
अपने पथ पर एक अकेला यात्री
बन कर चल पड़ा था

दिन भर अपनी ऊर्जा को बिखेरा
और उसकी रश्मियों की ऊष्मा
धरती को विभोर करती रही
कण-कण में स्फूर्ति और जीवन
की धड़कन भरती रही
और अब संझा के आगोश में
निढाल हो चुका है वही सूरज

एक लम्बी यात्रा से शिथिल होकर
काले स्याह बादलों के पीछे
उसका जर्जर अस्तिव छुप रहा है
और लालिमा प्रस्थान कर चुकी है
कल यही सूरज फिर उसी उमंग से
अपनी पूरी ऊर्जा लेकर आयेगा
अपना कर्तव्य पूरा करने

फिर शुरू होगा वही जीवन का क्रम
किरणों का धरती पर उतरकर
उसके अंग-अंग पर बिखर जाना
सूरज की ऊष्मा का स्पंदन
धरती की रग-रग में समा जाना
फिर अपने जीवन के अंतिम क्षणों को
संझा को समर्पित करके डूब जाना.

Thursday 22 July 2010

ये दुनिया

ये मेरी पहली ग़ज़ल है..मुझे ग़ज़ल लिखना नहीं आता फिर भी मन हुआ लिखने का, तो कुछ झिझकते हुये ही सही...एक छोटी सी कोशिश की है....

किसी को बुरा कहकर लोग जल रहे हैं
बिन बात ही वो क्यों जहर उगल रहे हैं

सामने आकर कहने की नहीं हिम्मत
पीठ के पीछे उनके कदम मचल रहे हैं

स्मार्ट लोग अपनी चालों को दिखाकर
चुप रहने वालों पे बड़ा जुल्म कर रहे हैं

नाम और यश को रिश्बत खरीद लेती
और बेगुनाह जाकर जेलों में सड़ रहे हैं

कुछ की है हैसियत दुनिया खरीदने की
कुछ लोग रुखी-सूखी खाकर बहल रहे हैं

भोर के पहले कोई कचरा समेट जाता
कुछ लोग देर तक बिस्तर में सो रहे हैं

घर में लगी है खुश करने को बहू सबको
कुर्सी पे बैठे बाबू जी बड़-बड़ कर रहे हैं

बारिश के आने से एक नयी बहार आती
कुछ पात आँधी से धरती पर गल रहे हैं

किसी की फिकर में भलाई करो जिसकी
उसके लिये लोगों की नफरत को सह रहे हैं.

परिहास

कभी रुदन दिया कभी हास्य मधुर
ना रो पाई ना हँस पाई
मुझे ऐसी कड़ी बनाया क्यों
जो न जुड़ पाई न बिखर पाई....

किन अपराधों का फल है यह
किन पापों का प्रतिदान मिला
जो अनजानी सी राहों पर मुझे
मिला अमिय विष का प्याला
पथ पर से फूल उठा कर के
काँटों से पंथ सजाया क्यों
अनुराग किया फिर कंटक से
तो सुख सौरभ तू लाया क्यों

पीने का रहा बराबर क्रम
ना जी पाई ना मर पाई
कैसा है तू अबोध निर्मम
न मिलन ही दिया न विदाई दी...

मुझे क्षीर-उदधि में छोडा यदि
उत्ताल तरंगें उठायीं क्यों
था देना नहीं कूल मुझको
सागर में नाव बहायी क्यों
यदि करना था परिहास तुझे
मेरे जीवन के पग - पग में
मंजिल फिर दीघ्र बनाता ना
ना रखता तू मुझको भ्रम में

मुझ शिखा को छोडा मंझा में
न जल पाई न बुझ पाई
मुझे ऐसी कली बनाया क्यों
जो न खिल पाई न मुरझाई...

कभी रुदन दिया कभी हास्य मधुर
ना रो पाई ना हँस पाई
मुझे ऐसी कड़ी बनाया क्यों
जो न जुड़ पाई न बिखर पाई....

क्यों

कभी तुमने ही उसकी तरफ
रुख किया था और अपनी
चाहत का जाल बुना था
क्या वह महज
एक सपना था....

अहसास कुछ जगाये उसमे
लड़खड़ाये जब कदम तो
आगे का पता ना था
क्या वह महज
एक तड़पना था....

एक तिनका सी वह फिर
बहने लगी थी जलधार में
अपना समझ कर तुम्हें
फिर भी ना कह पाये
जो कहना था...

तुम खो चुके थे होश अपने
जज्ब हो चुके थे उसी में
उसको भी होश न रहा
क्या बस अरमान का ही
वह मचलना था....

सूरज बनकर रोशन हुये
फिर क्षितिज की तरफ
तुम बढ़ने लगे
क्यों चाहा था उसे जब
तुम्हें ढलना था....

कभी तुम टहलते थे रात में
तारों के नीचे ओंठों को भींचे
सुलगते दिल से
क्या वह सब एक
पागलपना था....

ओस में डूबी घास को कुचलना
बरसती चाँदनी में
उसके ख्यालों में डूबना
क्या था ये सब अगर
उसे भूलना था....

पार्टी का इनविटेशन

फेसबुक पर चल पड़ा पार्टियों का सिलसिला
हम भी गये पार्टी में जब इनविटेशन मिला
किसी की शादी की पार्टी हो या जन्मदिन पर
हमने तो खाना बनाना बंद कर दिया घर पर
लोगों से मिलकर कुछ मन भी बहलने लगा
पर उनकी हरकतें देखकर मन डरने लगा
एक पार्टी थी कहीं किसी के जन्म दिन पर
मित्र दिल के बड़े अच्छे थे और सुन्दर था घर
रिश्तेदार और मित्रों की थी वहाँ भरमार
तो पागलों की भी संख्या थी बेशुमार
काफी लोग जो लगते थे बिलकुल नार्मल
जब पर्दा उठा तो लगी फरक कुछ शकल
उनकी बातें जब सुनीं तो लगे अटपटे
वहाँ जोगी भी खड़े थे पहने जूते फटे
एक बाबा थे वहाँ जिनकी दाढ़ी थी लम्बी
नाम था उनका पागल बाबा या फिर पी.बी.
रह-रह के खुजा रहे थे वो अपनी लम्बी दाढ़ी
और मुँह में चबा रहे थे कुछ पान सुपाड़ी
तरह-तरह के नमूने के वहाँ आये थे लोग
सबके सब जुटे थे लगाने में मिष्ठान का भोग
कई लोग तो खड़े थे अपनी ही बातों में अटके
कुछ खाने के इंतजार में लगे भटके-भटके
पकवान के थाल जैसे ही लाये गये वहाँ
तो और भी हुजूम इकठ्ठा हो गया वहाँ
आकर लाइन में लग गये एक दूजे से सटे
प्लेटें और नैपकिन सबके बीच में बंटे
कुछ ने खायी हर एक मिठाई जमकर
समोसों पे तो जमी थी सबकी ही नजर
ठूँस-ठूँस के खाया सबने जितना खा सके
फिर कुछ बैठ गये अपने पेट को पकड़ के
बाद में कुछ लोग लगने लगे थोड़े सिक
तो भीड़ भी धीरे-धीरे कम हुई तनिक
लोगों का दिल पार्टियों के लिये क्यों पागल है
सोच रही हूँ कि मुफ्त का खाना कहाँ कल है.

सजा

तुम मुझको सदा
तोड़ते ही रहोगे
और मैं
टूटती ही रहूँगी
तुम मुझको सदा
कोसते ही रहोगे
और मैं
बिसूरती ही रहूँगी

अपनी तपिश में
जिऊँगी सदा
और फिर
जीकर झुलसती रहूँगी
घावों को छुपाकर
ज़माने से
मरहम के लिये
बस तरसती ही रहूँगी.

एक दिन जब मैं
ना रहूँगी
तो शायद तुम्हें
कुछ अहसास होगा
यदि तुम्हारी आँखें
ढूँढेंगी मुझे
तो यादों के धागों
से ही साथ होगा.

तुम्हारे उन आँसुओं के
बहने का
मेरे लिये तब
कोई सार न होगा
ख्वाहिश, खुशियों और
गम से परे
मेरे लिए कहीं दूर
एक नया संसार होगा.

जब आँख फड़की

आज सुबह हुई और जैसे ही खुली
दायीं आँख की खिड़की
तो वो जोर-जोर से फड़की
मन को होने लगा बड़ा खटका
घंटों को रहा भटका-भटका
हो रहा था बड़ा अंदेशा
कहाँ से मिलेगा बुरा संदेशा
कुछ देर बाद एक खबर आई
तो मैं बहुत ही घबराई
एक दोस्त ने बताया की मैंने
आज उसकी जान बचायी
मैंने पूछा की वो कैसे भाई
बोला, '' दीदी, आपकी दुआ रंग लाई
जा रहा था आफिस को बस
गया मैं ट्रैफिक में फंस
आ रही थी बहुत झुंझलाहट
वाहन जा रहे थे घिसट-घिसट
हार्न का शोर और लोगों में खट-पट
लोग गुस्से में देखते हैं पलट-पलट
काम के लिये मैं हो रहा था लेट
कुछ लोग नहीं करते हैं इंडीकेट
ऐसे ही एक ट्रक सामने आया
उसका मूव मैं समझ न पाया
ब्रेक लगाने में कुछ टाइम लगा
हड़बड़ी में वो भी दे गया दगा
अचानक एक ट्रक ने मारी टक्कर
साइकिल संग गिरा मैं दूर उछल कर
मेरा सर एक स्थिर ट्रक से टकराया
हेलमेट ने तो सर को बचाया
पर जिसकी बहना का हो ऐसा प्रताप
उस भाई को क्या हो संताप
और आपकी दुआ मौत से खींच लाई. ''
तो सुनकर मैं बहुत सकुचाई
मैंने कहा, '' मेरे प्यारे भाई
मैंने कहाँ तुम्हारी जान बचाई
उस ऊपर वाले की है सब दुहाई
वही सबकी करता है भलाई
उसकी दया से तुम सलामत हो
अपने वीवी बच्चों की अमानत हो
तुम्हारी जान बची बहुत गनीमत है
तुम्हारी फेसबुक पर बहुत कीमत है
आज मौत को तुमने दुत्कार दिया
और हम लोगों पर उपकार किया
तुम मुझे प्यार से देते हो सम्मान
इतना तो रहता है मुझको ध्यान
मैं तो हूँ एक मामूली सी इंसान
रक्षा करने वाला तो है भगवान
तुम ऐसे ही हँसते-मुस्कुराते रहो
और ऊपर वाले के गुन गाते रहो.''

आहटें

उठ गये कदम चल पड़े
वो तभी
उनसे शोर तो होगा
कभी न कभी
आहटों की ना होती है
कोई जुबां
ना जानते हैं कदम कि
जाना कहाँ

उदासी में लिपटी हैं
जो तन्हाईयाँ
अब हवा भी है जाने से
डरती वहाँ
जर्रा-जर्रा वहाँ का सहम
सा गया
यह कैसा किसी से गुनाह
हो गया

ये सचाई है या फिर कोई
धोखा हुआ
साँसों का चलना जैसे है
रोका हुआ
जैसे ही आने की होती है
उसको भनक
तो अचानक ही फिर से
जाता तुनक

ओ, हवा अब ना तू
मचलना कभी
आहटों अब खामोश
रहना सभी
कोई क़दमों से कह दे न
जायें वहाँ
अब न करता है कोई
इंतजार जहाँ

किसी की आवाज़ से न
शिकवा रहा
बिन कहे ही कोई वह सब
कह गया
उन आहटों से कुछ हो
गयी है खता
उन्हें बहकने की मिल
गयी है सजा.

बरसो मेघा बरसो

उमड़-घुमड़ कर आओ बदरा
बरसो गरज-गरज के
नीर गगरिया लाओ भर के
बरसो सब कुछ तज के

तृषित सभी खेत खलियान
विचलित हैं सब वनवासी
अम्बर सूना-सूना सा ताके
धरती है कितनी प्यासी

फूल-पात हैं सब मुरझाये
उमस भरी हैं सभी दिशायें,
वन-उपवन और पंछी प्यासे
ताल-तलैयाँ सूखे जायें

कैसे हो गये इतने निर्मम
धरती इतनी हो गयी बंजर
बारिश को जन-जन तरसे
सूरज की आग चलाये खंजर

क्यों हमसे हो इतने रूठे
अब झूठी गर्जन अपनी छोड़ो
तपन भरा है जग सारा
कुछ तो देखो मुख ना मोड़ो

गर्जन करके आशा देते
अब ना और हमें तरसाओ
भर दो नदियाँ, ताल-तलैयाँ
आके झम-झम जल बरसाओ

भीषण गर्मी अग्नि बरसे
ओ ! मेघा अब बरसो भी आके
धरती का तन हरिया जाये
आकर हर्षा दो मन सबके.

सुधि की परछाईं

सुधि की झीनी सी परछाईं
भावों का उठता अमित शोर
रह-रह कर पलकें ढँक लेतीं
अधखुले दृगों की सजल कोर

सूने नयनों में झांको तो
बस शून्य दृष्टिगोचर होगा
यह मूक नयन जानते यही
आंसू की बेबस परिभाषा

मन के वनप्रांतर में अनेक
भावों के विहंग कूजते हैं
विश्वास टूट पल में जाता
यह विहंग कहीं जा छिपते हैं

सुख की कुछ मोहक सी छाया
क्षण भर पड़ती दिखलाई है
दुख का साथ उम्र भर का
जिसने की प्रीति निभाई है

विश्वास साथ दे सका नहीं
सुख की भी छाया मिली नहीं
केवल स्वप्नों की छाया में
जीवन-पथ पर मैं बढ़ी रही.

ये फिर छलकीं

फिर भर-भर आईं ये पगली
अब इनको छलक के जाना है...

मौसम बदला बादल छाये
अब इनको बरस के जाना है
ये बोझिल मन होता विन्हल
अब इसको कुछ समझाना है

मन को फिर तम ने आ घेरा
यह कैसा एक ताना-बाना है
आघात सह रहा मन कितना
गिर-गिरकर खुद उठ जाना है

कब सुख - दुख की ऋतु आये
अब इसको क्या समझाना है
इन आंधी-तूफानों में फंसकर
तिनका - तिनका उड़ जाना है

आँखों के पास नहीं कुछ भी
बस आंसू का भरा खजाना है
पलकों पर जो अटके हैं आंसू
अब इनका तो यही ठिकाना है

फिर भर-भर आईं ये पगली
अब इनको छलक के जाना है...