Friday, 25 June 2010

मत कहो

मत कहो बंद कर लो आँखें
फिर स्मृति-मेघ उमड़ आयेंगे.

आ-आकर अब मत छेडो
कोई कहता मुझको पागल
उसे तुम पागल ही कहने दो
अंताप्रदेश में भावों की
हिमशिला पड़ी रहने दो
मत उसे दिखाओ आँच
उसे तुम वहीं जमी रहने दो
नयनों को थिर रहने दो
मत कहो उठाओ यह पलकें
फिर सौ-सौ जलधि उमड़ आयेंगे

मत कहो बंद कर लो आँखें
फिर स्मृति-मेघ उमड़ आयेंगे.

मत कहो कभी हँसने को
मुझे स्वयं टूट जाने दो
मन में टूटी यादों के
खंडहर पड़े रहने दो
मत वहाँ टटोलो जाके
कुछ राज वहाँ रहने दो
मत छेड़ो स्मृति-तार
मुझे तुम बेसुध ही रहने दो
मत कहो गिराओ यह अलकें
मुख पर सावन-घन छा जायेंगे

मत कहो बंद कर लो आँखें
फिर स्मृति-मेघ उमड़ आयेंगे.

मुझे विगत भूल जाने दो
मन के इस नील निलय में
तुम शून्य भरा रहने दो
रसना को चुप रहने दो
मुझे गीत भूल जाने दो
मत छेड़ो राख चिता की
कुछ चिनगारी रहने दो
तुम अधर बंद रहने दो
मत कहो कि खोलो बंद अधर
यह अगणित विरह गीत गायेंगे

मत कहो बंद कर लो आँखें
फिर स्मृति-मेघ उमड़ आयेंगे.

4 comments:

  1. आपके ब्लोग पर आ कर अच्छा लगा! ब्लोगिग के विशाल परिवार में आपका स्वागत है! अन्य ब्लोग भी पढ़ें और अपनी राय लिखें! हो सके तो follower भी बने! इससे आप ब्लोगिग परिवार के सम्पर्क में रहेगे! अच्छा पढे और अच्छा लिखें! हैप्पी ब्लोगिग!

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  2. मत कहो गिराओ यह अलकें
    मुख पर सावन घन छा जायेंगे
    मत कहो बंद कर लो आँखें
    फिर स्मृति - मेघ उमड़ आयेंगे.
    वाह- वाह बहुत खूब.
    बेहद ही सशक्त कविता है, एकदम ह्रदय को छू गयी और ऐसा प्रतीत हुआ कि मैंने ही लिखी है.

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  3. Kahane ka andaz purana hai. Par Baat Samjh Aayi.

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  4. रोशन जी, राजीव जी एवं शब्दार्थ जी,
    मेरी रचना को सराहने व उसकी प्रशंसा करने के लिए आप लोगों को हार्दिक धन्यबाद.

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