ये मेरी पहली ग़ज़ल है..मुझे ग़ज़ल लिखना नहीं आता फिर भी मन हुआ लिखने का, तो कुछ झिझकते हुये ही सही...एक छोटी सी कोशिश की है....
किसी को बुरा कहकर लोग जल रहे हैं
बिन बात ही वो क्यों जहर उगल रहे हैं
सामने आकर कहने की नहीं हिम्मत
पीठ के पीछे उनके कदम मचल रहे हैं
स्मार्ट लोग अपनी चालों को दिखाकर
चुप रहने वालों पे बड़ा जुल्म कर रहे हैं
नाम और यश को रिश्बत खरीद लेती
और बेगुनाह जाकर जेलों में सड़ रहे हैं
कुछ की है हैसियत दुनिया खरीदने की
कुछ लोग रुखी-सूखी खाकर बहल रहे हैं
भोर के पहले कोई कचरा समेट जाता
कुछ लोग देर तक बिस्तर में सो रहे हैं
घर में लगी है खुश करने को बहू सबको
कुर्सी पे बैठे बाबू जी बड़-बड़ कर रहे हैं
बारिश के आने से एक नयी बहार आती
कुछ पात आँधी से धरती पर गल रहे हैं
किसी की फिकर में भलाई करो जिसकी
उसके लिये लोगों की नफरत को सह रहे हैं.
...बेहतरीन!!!
ReplyDeleteकुछ की है हैसियत दुनिया खरीदने की
ReplyDeleteकुछ लोग रुखी-सूखी खाकर बहल रहे हैं
भोर के पहले कोई कचरा समेट जाता
कुछ लोग देर तक बिस्तर में सो रहे हैं
achchha likha hai aapne, jhijhkiye mat aur likhate jaiye, achchhee sambahavana dikhata hai aap ka lekhan. all the best
श्याम जी एवं रत्नाकर जी,
ReplyDeleteआपलोगों से प्रोत्साहन मिल रहा है...मन को बहुत ख़ुशी हो रही है. मेरा हार्दिक धन्यबाद स्वीकार करें.
नाम और यश को रिश्बत खरीद लेती
ReplyDeleteऔर बेगुनाह जाकर जेलों में सड़ रहे हैं
यथार्थ.....सुंदर अभिव्यक्ति....
बहुत सुन्दर..
ReplyDeleteआप सभी पाठकों की सराहना से मुझे बहुत प्रोत्साहन मिला है..जिसके लिये मैं आप सबकी बहुत आभारी हूँ. सबको मेरा हार्दिक धन्यबाद.
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर रचना....बधाईयां एवं अपार शुभकामनाएं !!!!
ReplyDeleteप्रकाश भाई, रचना पसंद करने व आपकी शुभकामनाओं के लिये बहुत धन्यबाद.
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