Monday 23 August 2010

आपे में नहीं हैं

रुतबा है जिनका ना आपे में वो हैं
सरे आम मुल्क में तबाही मची है
है न परवाह उनको उनकी बला से
इज्ज़त किसी की लुटी या बची है

आते नहीं हैं जिनको गिनना पहाड़े
वो पब्लिक में डाकू बने दिन दहाड़े
करते हैं पतलून पब्लिक की ढीली
और खुदके कसके बाँध रखे हैं नाड़े

करके गुनाह वह हैं खुद को छुपाते
इलज़ाम का धब्बा किसी पे लगाते
कोई आँखे उठाये या चूँ भी है करता
तो वे गीदड़ भी गुर्राके शेर बन जाते

मुँह में जपकर राम हमें उल्लू बनायें
निगाहें बचाकर तीन तेरह कर जायें
गिरगिट की तरह वे बदल लेते हैं रंग
जैसे ही उनको अपने वोट मिल जायें

सफेदपोश की असलियत नहीं दिखती
बगुला भगत की फितरत नहीं बदलती
सौ चूहे खाकर भी दिखाते हैं साफगोई
बेखबर हैं वो क्या किसी पे है गुजरती

बहानेबाजी करने को ढूँढते हैं सौ बहाने
चमचों को पड़ते हैं उनके नखरे उठाने
जल बिन उपवास में जूस को पी जाते
जेल भी जाते हैं वो तो शोहरत के बहाने.

आज़ाद देश के पंछी

आजाद होकर लोग अपने होश खो रहे हैं

आजाद वतन में जहर के बीज बो रहे हैं l


जिन्हें पता नहीं क्या फर्ज बनते उनके

वो डोर थामे मुल्क की दिन में सो रहे हैं l


तूफां में घिरे मांझी ख्वाबों को देखते हैं

कामूस में कश्ती को वो खुद डुबो रहे हैं l


जीने के लिये चाहिये जिनको सुकूं थोड़ा

सहकर मुसीबतें को वो मुर्दे से हो रहे हैं l


मजबूर हैं मजदूर जो सीने पे रखे पत्थर

मालिकों के दिल तो पत्थर के हो रहे हैं l


अपने वतन की बचाई आबरू जिन्होंने

शान उनकी लोग कालिख से धो रहे हैं l


यहाँ हर तरफ फैले हैं गुनाहों से भरे मंजर

हर दिन खुदा के नाम पर अंधेर हो रहे हैं l


न भरोसा इन्सान के इरादों का यहाँ कोई

बिन बात ही कुछ लोग यहाँ उदू हो रहे हैं l


नैतिकता की करीं थीं जिन्होनें कभी बातें

अब मकबूल होकर वही बदकार हो रहे है l


न जमाना है नेकी का न है सिफत इसकी

लूटकर खुलेआम लोग गाफिल हो रहे हैं l


वतन का मुस्तकबिल ना हुआ मुकम्मल

पर मुद्दों पर लोग लम्बी तकरीर दे रहे हैं l


ये कैसी लूटमार है ?

जिस देश की आन-बान, शान पर बनी हुई
उस देश के नेता व सरकार को धिक्कार है

चैन ढूँढा हर जगह पर मिल गईं मुसीबतें
खुशी के पल गिने-चुने हैं दुख यहाँ हजार हैं

किसी के पास लाश दफ़नाने को पैसे नहीं
तो सज रहीं कहीं कुछ अमीरों की मजार हैं

मन का दरवाज़ा भी और मंदिर भी एक है
पर उस मंदिर में रहने वाले देवता हज़ार हैं

अस्पताल सब लग रहे बाजार जैसे हों भरे
कहीं डाक्टर तो एक है पर बीमार बेशुमार हैं

लम्बी है कतार लगी और लम्बा इंतज़ार है
नल तो बस एक वहाँ और लोग बेक़रार हैं

महलों में जो रहते माँगें जन्नत की मन्नतें
दो जून रोटी खाकर कुछ लोग खुशगवार हैं

लोग डिग्री को साथ लेकर एड़ियाँ रगड़ रहे
नौकरी है एक मगर वहाँ कई उम्मीदवार हैं

अमीरों के जश्न में कुछ कुत्ते आकर खा गये
पर बाहर खड़े भिखारियों को लगती दुत्कार हैं.