Thursday 22 July 2010

बरसो मेघा बरसो

उमड़-घुमड़ कर आओ बदरा
बरसो गरज-गरज के
नीर गगरिया लाओ भर के
बरसो सब कुछ तज के

तृषित सभी खेत खलियान
विचलित हैं सब वनवासी
अम्बर सूना-सूना सा ताके
धरती है कितनी प्यासी

फूल-पात हैं सब मुरझाये
उमस भरी हैं सभी दिशायें,
वन-उपवन और पंछी प्यासे
ताल-तलैयाँ सूखे जायें

कैसे हो गये इतने निर्मम
धरती इतनी हो गयी बंजर
बारिश को जन-जन तरसे
सूरज की आग चलाये खंजर

क्यों हमसे हो इतने रूठे
अब झूठी गर्जन अपनी छोड़ो
तपन भरा है जग सारा
कुछ तो देखो मुख ना मोड़ो

गर्जन करके आशा देते
अब ना और हमें तरसाओ
भर दो नदियाँ, ताल-तलैयाँ
आके झम-झम जल बरसाओ

भीषण गर्मी अग्नि बरसे
ओ ! मेघा अब बरसो भी आके
धरती का तन हरिया जाये
आकर हर्षा दो मन सबके.

No comments:

Post a Comment