Thursday 22 July 2010

आहटें

उठ गये कदम चल पड़े
वो तभी
उनसे शोर तो होगा
कभी न कभी
आहटों की ना होती है
कोई जुबां
ना जानते हैं कदम कि
जाना कहाँ

उदासी में लिपटी हैं
जो तन्हाईयाँ
अब हवा भी है जाने से
डरती वहाँ
जर्रा-जर्रा वहाँ का सहम
सा गया
यह कैसा किसी से गुनाह
हो गया

ये सचाई है या फिर कोई
धोखा हुआ
साँसों का चलना जैसे है
रोका हुआ
जैसे ही आने की होती है
उसको भनक
तो अचानक ही फिर से
जाता तुनक

ओ, हवा अब ना तू
मचलना कभी
आहटों अब खामोश
रहना सभी
कोई क़दमों से कह दे न
जायें वहाँ
अब न करता है कोई
इंतजार जहाँ

किसी की आवाज़ से न
शिकवा रहा
बिन कहे ही कोई वह सब
कह गया
उन आहटों से कुछ हो
गयी है खता
उन्हें बहकने की मिल
गयी है सजा.

1 comment:

  1. संजय जी,
    मेरी रचना को सराहने के लिये आपका हार्दिक धन्यबाद .

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