Monday, 28 June 2010

सखी

बातें करने को सखी से
मन इतना हुआ अधीर
अंखियाँ बदली सी बनीं
भर-भर आये नीर
उलसित मन इतना हुआ
दिल की धड़कन भी बढ़ी
जब आई याद सखी
सालों से न देखा था
बातें करनी थीं कई
और करनी थी गुफ्तगू
फिर फोन पर संदेशा
आया जब एक दिन
कुछ पल न समझ सकी
रोये, हँसे या क्या करे
शब्द भी ढूंढे तो मिल न सके
बचपन फिर सजग हो उठा
यादों के पन्ने पलटने लगे
मन पुलकित हुआ
नयन बरसने लगे
पल ठहर से गये
कुछ समय के लिये
जब सखी ने पुकारा उसे
फिर शब्दों का सैलाब
रुक न सका
एक दूजे से कितना
कुछ कह गयीं
जिसमें सारे शिकवे
गिले बह गये
दूरियाँ मिट गयीं
पल गुजरते रहे
बातों के चले सिलसिले
कुछ अपनी कही
कुछ उसकी सुनी
क्या हुआ जो
मिल न सकीं वह गले.

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