Thursday 22 July 2010

सुधि की परछाईं

सुधि की झीनी सी परछाईं
भावों का उठता अमित शोर
रह-रह कर पलकें ढँक लेतीं
अधखुले दृगों की सजल कोर

सूने नयनों में झांको तो
बस शून्य दृष्टिगोचर होगा
यह मूक नयन जानते यही
आंसू की बेबस परिभाषा

मन के वनप्रांतर में अनेक
भावों के विहंग कूजते हैं
विश्वास टूट पल में जाता
यह विहंग कहीं जा छिपते हैं

सुख की कुछ मोहक सी छाया
क्षण भर पड़ती दिखलाई है
दुख का साथ उम्र भर का
जिसने की प्रीति निभाई है

विश्वास साथ दे सका नहीं
सुख की भी छाया मिली नहीं
केवल स्वप्नों की छाया में
जीवन-पथ पर मैं बढ़ी रही.

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