Wednesday 3 November 2010

मानव-दीप

मिट्टी, कांच और धातु के
कितने तरह के दिये
बनाये जाते हैं
जलाये जाते हैं,
बुझाये जाते हैं
और हम मानव भी
मिट्टी के नये दिये की तरह
हाड़-मांस के पुतलों के
आकार में
धरती पर आते हैं
जलते हैं, टिमटिमाते हैं
कभी-कभी साथ मिलकर
खास अवसरों पर
दीपावली की तरह ही
हँसते हैं
रोते हैं
जगमगाते हैं
परेशानियों, मुसीबतों और
दुखों के थपेड़े खाकर भी
जलते रहते हैं
अच्छे बुरे कर्मों को कर
प्रकाश फैलाते हैं
फिर जीवन की लौ के बुझते
उन्ही मिट्टी के दियों से
गल जाते हैं
और मिट्टी में मिल जाते हैं.

क्या करूँ..

एक औरत हूँ घर के कामों की जरूरत हूँ
एक दिये की तरह जलती-बुझती सूरत हूँ
लोगों की आँखों में सवाल उठते हैं अक्सर
खुद भी हैरत में हूँ एक हड़बड़ी की मूरत हूँ.

सुबह होते ही सूरज की आँखें चढ़ जाती हैं
हर किसी को अपने काम की पड़ जाती है
कहाँ से काम हों शुरू कहाँ पे होंगें खतम
सोचते हुए ही जिन्दगी तमाम हो जाती है.

घबराहट में जब हाथ से चीज़ छूट जाती है
तो दिल की धड़कन भी अक्सर बढ़ जाती है
याददाश्त को भी कभी मार जाता है लकवा
तो सब्जी में दोबारा और मिर्च पड़ जाती है.

इंसान काम करते-करते निढाल हो जाता है
थकान और भूख से बड़ा बुरा हाल हो जाता है
खाना होते हुए भी कभी खाने का समय ढूँढो
हड़बड़ी में हर काम भी एक ववाल हो जाता है.