Thursday 22 July 2010

क्यों

कभी तुमने ही उसकी तरफ
रुख किया था और अपनी
चाहत का जाल बुना था
क्या वह महज
एक सपना था....

अहसास कुछ जगाये उसमे
लड़खड़ाये जब कदम तो
आगे का पता ना था
क्या वह महज
एक तड़पना था....

एक तिनका सी वह फिर
बहने लगी थी जलधार में
अपना समझ कर तुम्हें
फिर भी ना कह पाये
जो कहना था...

तुम खो चुके थे होश अपने
जज्ब हो चुके थे उसी में
उसको भी होश न रहा
क्या बस अरमान का ही
वह मचलना था....

सूरज बनकर रोशन हुये
फिर क्षितिज की तरफ
तुम बढ़ने लगे
क्यों चाहा था उसे जब
तुम्हें ढलना था....

कभी तुम टहलते थे रात में
तारों के नीचे ओंठों को भींचे
सुलगते दिल से
क्या वह सब एक
पागलपना था....

ओस में डूबी घास को कुचलना
बरसती चाँदनी में
उसके ख्यालों में डूबना
क्या था ये सब अगर
उसे भूलना था....

2 comments:

  1. सुंदर भावपूर्ण रचना के लिए बहुत बहुत आभार.

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  2. ओस में डूबी घास को कुचलना
    बरसती चाँदनी में
    उसके ख्यालों में डूबना
    क्या था ये सब अगर
    उसे भूलना था....

    गजब कि पंक्तियाँ हैं ...

    बहुत सुंदर रचना.... अंतिम पंक्तियों ने मन मोह लिया...

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