Monday 28 June 2010

कनेर का वन

कुछ दूर यहाँ से हटकर
एक कनेर का वन है
जिसके सुरभित कानन में
अलि करते कुछ गुंजन हैं
उस वन के झुरमुट में
कुछ नन्ही परियाँ रहती हैं
दिन भर रहतीं फूलों में
वह गंध पिये जीती हैं
इन परियों की भी है
एक सुंदर सी शहजादी
जिसको मिली हुई है
कुछ ज्यादा ही आजादी
रात्रिकाल होने पर
जब चन्द्रज्योति मुस्काती
तब परियाँ जग-जग कर
नभ के आँगन में आतीं
और अंगड़ाई ले उठती
कुछ रुकी हुई मलयानिल
रंगीन समां बंध जाता
तारों की होती झिलमिल
कुछ देर जरा वह यूँ ही
करतीं विहार गगन में
जब तक छाती नीरवता
धरती के हर कन-कन में
जब रात्रि पड़ी होती श्लथ
सारी धरती सो जाती
किरनों की डोरी पकडे
परियाँ धीरे से आतीं
लेकर अपने हाथों से
स्वप्नों की रेशम चादर
धीरे से उड़ा हैं देती
तब निद्रित शिशुओं पर
यह कोमल कुसुम अचानक
देखते स्वप्न तब प्यारे
स्वप्नों में परियाँ रानी
तब गीत सुनातीं न्यारे
रंगीन लोक परिओं का
शिशुओं को मस्त बनाता
इसलिए रात्रि होते ही
हर नन्हा शिशु सो जाता
तुमने भी देखा होगा
कुछ नन्हे शिशु मुस्काते
उस समय परी रानी की
गोदी में करते बातें
परियाँ उनको हैं सुनातीं
कुछ मीठे गीत शहद से
मृदु किलकारी भर उठते
वे मीठा सपन टूटते
उषाकाल से पहले
स्वप्नों का जाल हटाकर
आ जाती हैं वह वन में
सोतीं फूलों में जाकर.

4 comments:

  1. सुन्दर अभिव्यक्ति!

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  2. सुन्दर रचना...आभार

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  3. sundar parkalpana. shukriya
    Daman

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  4. उड़न जी, महेन्द्र जी एवं दमन जी,
    मेरी रचना की सराहना और प्रशंसा करने के लिये आप लोगों को मेरा हार्दिक धन्यबाद.

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