दूर घाटी में मचल रही है
कोई निर्झरा
शून्य नीलाकाश को निरख रही
है चुप धरा
मुस्कुराती वादियाँ खिली-खिली
सी धूप में
स्वप्नमयी हो उठी हैं खोयी
अपने रूप में
ढल रहा है दिन मगर इन्हें तो
होश ही नहीं
श्रंग झिलमिला उठे हैं रश्मियाँ
बिखर गईं
भाग रही धूप घिर रही है
साँझ भी घनी
नीरवता व्याप्त जैसे हो
युगों की बंदिनी
आँचल है फैल रहा धरती पे
छाँव का
पूछ रही रेशमी सी धूप पता
गाँव का
काँपती सी दिख रही हैं पंक्तियाँ
चिनार की
यह झरे से फूल कह रहे कहानी
हार की
मादकता फैल रही फूलों की
महक से
शांत है समीर हो रहे विहंग
स्तब्ध से
झाँक रहा है विजन में व्योम भी
भरा-भरा
दूर घाटी में मचल रही है कोई
निर्झरा.
बहुत सुन्दर रचना,
ReplyDeleteshanno ji aapki kavita bahut hee umdaa... main isey shukrvar kee charcha manch me rakh rahi hoon....dhanyvaad..
ReplyDeleteबहुत सुन्दर ...
ReplyDeletesundar rachna!!!
ReplyDeleteभाव ,प्रवाह,बिम्ब और शब्द योजना बेजोड़ हैं इस रचना में...
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर रचना....वाह !!!!
बहुत ही सुन्दर रचना....शुभकामनायें !!!
ReplyDeleteउड़न जी, नूतन जी, संगीता जी, अनुपमा जी, रंजना जी, प्रकाश जी,
ReplyDeleteरचना को सराहने व इसकी प्रशंसा के लिये आप लोगों को मेरा हार्दिक धन्यबाद.