Tuesday 7 September 2010

दूर घाटी में

दूर घाटी में मचल रही है
कोई निर्झरा
शून्य नीलाकाश को निरख रही
है चुप धरा
मुस्कुराती वादियाँ खिली-खिली
सी धूप में
स्वप्नमयी हो उठी हैं खोयी
अपने रूप में
ढल रहा है दिन मगर इन्हें तो
होश ही नहीं
श्रंग झिलमिला उठे हैं रश्मियाँ
बिखर गईं
भाग रही धूप घिर रही है
साँझ भी घनी
नीरवता व्याप्त जैसे हो
युगों की बंदिनी
आँचल है फैल रहा धरती पे
छाँव का
पूछ रही रेशमी सी धूप पता
गाँव का
काँपती सी दिख रही हैं पंक्तियाँ
चिनार की
यह झरे से फूल कह रहे कहानी
हार की
मादकता फैल रही फूलों की
महक से
शांत है समीर हो रहे विहंग
स्तब्ध से
झाँक रहा है विजन में व्योम भी
भरा-भरा
दूर घाटी में मचल रही है कोई
निर्झरा.

7 comments:

  1. बहुत सुन्दर रचना,

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  2. shanno ji aapki kavita bahut hee umdaa... main isey shukrvar kee charcha manch me rakh rahi hoon....dhanyvaad..

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  3. भाव ,प्रवाह,बिम्ब और शब्द योजना बेजोड़ हैं इस रचना में...

    बहुत ही सुन्दर रचना....वाह !!!!

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  4. बहुत ही सुन्दर रचना....शुभकामनायें !!!

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  5. उड़न जी, नूतन जी, संगीता जी, अनुपमा जी, रंजना जी, प्रकाश जी,
    रचना को सराहने व इसकी प्रशंसा के लिये आप लोगों को मेरा हार्दिक धन्यबाद.

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