एक औरत हूँ घर के कामों की जरूरत हूँ
एक दिये की तरह जलती-बुझती सूरत हूँ
लोगों की आँखों में सवाल उठते हैं अक्सर
खुद भी हैरत में हूँ एक हड़बड़ी की मूरत हूँ.
सुबह होते ही सूरज की आँखें चढ़ जाती हैं
हर किसी को अपने काम की पड़ जाती है
कहाँ से काम हों शुरू कहाँ पे होंगें खतम
सोचते हुए ही जिन्दगी तमाम हो जाती है.
घबराहट में जब हाथ से चीज़ छूट जाती है
तो दिल की धड़कन भी अक्सर बढ़ जाती है
याददाश्त को भी कभी मार जाता है लकवा
तो सब्जी में दोबारा और मिर्च पड़ जाती है.
इंसान काम करते-करते निढाल हो जाता है
थकान और भूख से बड़ा बुरा हाल हो जाता है
खाना होते हुए भी कभी खाने का समय ढूँढो
हड़बड़ी में हर काम भी एक ववाल हो जाता है.
एक औरत हूँ घर के कामों की जरूरत हूँ
ReplyDeleteएक दिये की तरह जलती-बुझती सूरत हूँ
लोगों की आँखों में सवाल उठते हैं अक्सर
खुद भी हैरत में हूँ एक हड़बड़ी की मूरत हूँ.
nice poetry..
http://shayaridays.blogspot.com
ऋचा जी, आपका हार्दिक धन्यबाद.
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